अमित श्रीवास्तव

भारतीय शिक्षा का इतिहास भारतीय सभ्यता के इतिहास के समकालीन है, लेकिन भारतीय समाज के शिक्षा के विकास और उसमें होने वाले परिवर्तन में शिक्षा की जगह और इसकी भूमिका निरंतर विकासशील रही हैं। वैदिक युग के शिक्षा प्रणाली के पश्चात बौद्धकालीन युग में शिक्षा को निरंतर भौतिक तथा सामाजिक प्रतिबद्धता के साथ लगातार वृद्धि देखा गया था और बौद्धकाल में स्त्रियों और अछूतों को भी शिक्षा के लिए योग्य माना गया और उनके लिए कई गंभीर प्रयास किये गए थे। नालंदा विश्वविद्यालय विश्व में सबसे पुराना विश्वविद्यालय था जहाँ पुरे विश्व से शिक्षा ग्रहण करने आते थे।
प्राचीन भारत से जिस शिक्षा व्यवस्था प्रचलन चला आ रहा था वह वर्तमान विश्व की शिक्षा व्यवस्था से ज्यादा उन्नत और सटीक मानी जाती थी लेकिन समय के साथ कई तरह की समाजिक परिस्थितियों के कारण भारतीय शिक्षा व्यवस्था लगातार ह्रास हुआ। डॉ. अल्टेकर के अनुसार,”वैदिक युग से लेकर अब तक भारतवासियों के लिये शिक्षा का अभिप्राय यह रहा है कि शिक्षा प्रकाश का स्रोत है तथा जीवन के विभिन्न कार्यों में यह हमारा मार्ग आलोकित करती है।” काशी, तक्षशिला, नालंदा, विक्रमशिला, प्रयाग आदि महत्वपूर्ण शिक्षा के केंद्र थे।
दक्षिण भारत में भी एन्नारियम, तिरुमुक्कुदल, मलकपुरम् आदि जगहों में प्रसिद्ध विद्यालय थे, जहाँ पुरानी पद्धति के अनुसार शिक्षा व्यवस्था चल रही थी। अग्रहारों के द्वारा शिक्षा का प्रचार और प्रसार समय के साथ लगातार कई शताब्दियों तक होता रहा। कादिपुर और सर्वज्ञपुर के अग्रहार विशिष्ट शिक्षाकेंद्र थे। भारत में शिक्षा को हमेशा से समाज के उत्थान और विकास के लिए मूलभूत आधार माना गया है। शिक्षा का उद्देश्य न केवल ज्ञान प्रदान करता है, बल्कि व्यक्तित्व का संपूर्ण विकास भी करता है।
भारत में आधुनिक शिक्षा की नींव यूरोपीय ईसाई धर्मप्रचारक तथा व्यापारियों के हाथों से डाली गई। उन्होंने कई विद्यालय स्थापित किए। प्रारंभ में मद्रास ही उनका कार्यक्षेत्र रहा। धीरे धीरे कार्यक्षेत्र का विस्तार बंगाल में भी होने लगा। इन विद्यालयों में ईसाई धर्म की शिक्षा के साथ साथ इतिहास, भूगोल, व्याकरण, गणित, साहित्य आदि विषय भी पढ़ाए जाते थे। आधुनिक युग में, शिक्षा का महत्व इसलिए भी बढ़ गया है क्योंकि यह नौकरी, सामाजिक प्रतिष्ठा और आर्थिक स्थिरता का एक प्रमुख साधन भी है।
भारत में शिक्षा एक जटिल प्रक्रिया है जिसे कई शासकीय निकायों द्वारा विनियमित किया जाता है। वर्तमान में यहाँ शिक्षा मुख्यतः सार्वजनिक संस्थानों से प्रदान की जाती है जिसमें नियंत्रण एवं वित्तपोषण तीन स्तरों से आता है – केन्द्र, राज्य एवं स्थानीय निकाय। 14 वर्ष तक के बच्चों को निःशुल्क एवं अनिवार्य शिक्षा का अधिकार प्रदान किया गया है। हालांकि, शिक्षा प्रणाली में बाजारीकरण और बढ़ती प्रतिस्पर्धा ने छात्रों के जीवन में भारी दबाव डाल दिया है। खासकर प्रतियोगी परीक्षाओं की तैयारी के दौरान छात्रों को मानसिक, शारीरिक और भावनात्मक चुनौतियों का लगातार सामना करना पड़ता है।

भारत की शिक्षा प्रणाली
भारत दुनिया की सबसे बड़ी राष्ट्रीय शिक्षा प्रणाली में से एक है। 15,16,800 से अधिक विद्यालय और 25,94,60,000 से अधिक नामांकन के साथ, भारत ने लगातार वर्षों से अपनी स्शिक्षा प्रणाली में सुधार किया है। संविधान के अनुसार 6 से 14 वर्ष की आयु के बच्चों को मुफ्त और अनिवार्य शिक्षा एक मौलिक अधिकार के रूप में प्रदान की गयी है। शिक्षा रिपोर्ट (ASIR) 2012 की वार्षिक स्थिति के अनुसार, 6-14 वर्ष की आयु के बीच के सभी ग्रामीण बच्चों में से 96.5% शिक्षा के लिए नामांकित थे।
व्यापार और अन्वेषण के कारण पारंपरिक तरीके से शिक्षण को धीरे-धीरे आधुनिक शिक्षा प्रणाली से बदल दिया गया है। वर्तमान शिक्षा प्रणाली 20वीं शताब्दी में अंग्रेजों द्वारा शुरू की गई थी। जिसमें पश्चिमी शैली और पश्चिमी सामग्री एवं प्रभाव को देखा जा सकता है। भारत में विश्वविद्यालयों की स्थापना बॉम्बे, कलकत्ता और मद्रास में की गई जो ऑक्सफोर्ड और कैम्ब्रिज के तर्ज पर तैयार किए गए थे। 1961 में नेशनल काउंसिल ऑफ एजुकेशनल रिसर्च एंड ट्रेनिंग (एनसीईआरटी) की स्थापना एवं 1964 में कोठारी आयोग के नाम से जाने जाने वाले शिक्षा आयोग के साथ भारतीय शिक्षा प्रणाली में सुधार हुआ।
भारत के अधिकांश शिक्षा 12वीं तक की कक्षा प्रणाली का पालन करते हैं। छात्रों को 14 वर्ष की आयु तक विद्यालय में उपस्थित होना आवश्यक है। भारत के अधिकांश विद्यालय राज्य बोर्डों से संबद्धित हैं। भारत में निजी विद्यालय केंद्रीय माध्यमिक शिक्षा बोर्ड या भारतीय विद्यालय प्रमाणपत्र परीक्षा परिषद से संबद्धित हैं। भारत में वर्तमान में 790 से अधिक विश्वविद्यालय और 39,000 से अधिक कॉलेज हैं। भारत में विश्वविद्यालयों की निगरानी संवैधानिक संस्थान द्वारा की जाती है, जो अप्रत्यक्ष रूप से मानव संसाधन विकास मंत्रालय, भारत सरकार के द्वारा नियंत्रित होती है और राज्य सरकारों द्वारा संयुक्त रूप से देखी जाती है। भारतीय विश्वविद्यालय अनुदान आयोग (यूजीसी भारत) मानव संसाधन विकास मंत्रालय के तहत भारतीय संघ सरकार द्वारा स्थापित एक वैधानिक निकाय है, और उच्च शिक्षा के मानकों के समन्वय और रखरखाव के लिए जिम्मेदार है।
सरकार ने राज्य के उच्च और तकनीकी संस्थानों को वित्त पोषण प्रदान करने के लिए राष्ट्रीय अभियान शिक्षा अभियान शुरू किया है। कुल 310 से अधिक राज्य सार्वजनिक विश्वविद्यालय और 13,000 से अधिक कॉलेज इसके अंतर्गत आते हैं। भारत में तकनीकी शिक्षा प्राप्त करने के लिए आईआईटी और आईआईएम जैसे अंतर्राष्ट्रीय ख्याति के संस्थान हैं। इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ साइंस, टाटा इंस्टीट्यूट ऑफ फंडामेंटल रिसर्च, इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ साइंस एजुकेशन एंड रिसर्च, इंडियन एसोसिएशन फॉर इंडियन रिसर्च एसोसिएशन विज्ञान की खेती, बुनियादी विज्ञान और गणित में अपने शोध के लिए भी जानी जाती है। भारत की राष्ट्रीय शिक्षा नीति (एनपीई) ने उच्च तकनीकी शिक्षा के विनियमन और विकास के लिए एक शीर्ष निकाय को मंजूरी दी है। इसके परिणामस्वरूप अखिल भारतीय तकनीकी शिक्षा परिषद (एआईसीटीई) का 1987 में गठन हुआ। केंद्रीय स्तर पर भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान, भारतीय अंतरिक्ष विज्ञान और प्रौद्योगिकी संस्थान, राष्ट्रीय प्रौद्योगिकी संस्थान आदि राष्ट्रीय महत्व के रुप में माने जाने वाले संस्थान हैं।
प्रतियोगी परीक्षाओं का महत्व
भारत में लगभग 300 प्रवेश परीक्षाएँ होती हैं और नौकरियों के लिए सरकार द्वारा लगभग 40 परीक्षाएँ आयोजित की जाती हैं। इन परीक्षाओं के इतने प्रतिस्पर्धी होने का एक मुख्य कारण विशव की सबसे बड़ी युवा जनसंख्या है, जो अभी भी बढ़ रही है। लाखों अन्य उम्मीदवारों में से योग्य उम्मीदवारों को चुनना चुनौतीपूर्ण हो जाता है, यही कारण है कि परीक्षाएँ इतनी कठिन होती हैं। भारत में, रोज़गार, विद्यालय और आगे की शिक्षा सहित हर चीज़ के लिए प्रतिस्पर्धा है।
प्रतियोगी परीक्षाओं की तैयारी करने वाले छात्रों में तार्किक सोच और समस्या-समाधान क्षमताएँ: जैसे-जैसे छात्र परीक्षाओं के लिए तैयार होते हैं, वे कई वास्तविक दुनिया के मुद्दों पर काम करके सामग्री को आत्मसात करते हैं। इस तरह के अभ्यास की बदौलत वे विषय को विभिन्न कोणों से देख सकते हैं, जिससे उनकी विश्लेषणात्मक क्षमताएँ भी तेज होती हैं। मात्रात्मक योग्यता: कुछ परीक्षण, जिनमें उच्च स्तर का गणित शामिल होता है, मुख्य रूप से मात्रात्मक सीखने की क्षमताओं को बढ़ाने पर केंद्रित होते हैं। प्रतियोगी परीक्षाओं के लिए गहन अध्ययन की आवश्यकता होती है, जो ज्ञान और क्षमताओं को बढ़ाता है और व्यक्ति के आत्मविश्वास को बढ़ाता है।
जो बच्चे अच्छा प्रदर्शन करते हैं और पुरस्कार प्राप्त करते हैं, वे अपनी प्रतिभा में अधिक आश्वस्त होते हैं। इसके अतिरिक्त, यह उनके लिए निरंतर पूर्णता प्राप्त करने की प्रेरणा का काम करता है। विभिन्न कार्यों में भाग लेने से बच्चों को अपने कौशल और कमियों की पहचान करने में मदद मिलती है। यह बच्चों को सिखाता है कि हार को कैसे स्वीकार किया जाए और अपनी गलतियों से कैसे सीखा जाए और कैसे आगे बढ़ा जाए। यह बच्चों को जीवन भर लगातार प्रयास करने के महत्व को समझने में मदद करता है। जो बच्चे नियमित, अनुशासित काम करने की आदत विकसित करते हैं, वे वयस्क जीवन से निपटने के लिए अच्छी तरह से तैयार होते हैं।
हर साल भारत में लाखों छात्र विभिन्न प्रतियोगी परीक्षाओं में शामिल होते हैं। ये परीक्षाएँ उम्मीदवारों का उनके तकनीकी कौशल, योग्यता और अन्य पहलुओं के आधार पर मूल्यांकन करती हैं। इनमें से कुछ परीक्षाएँ ऑनलाइन आयोजित की जाती हैं, जबकि अन्य ऑफ़लाइन मोड में होती हैं जैसे – आईआईटी-जेईई, नीट, यूपीएससी सिविल सर्विसेज परीक्षा, एसएससी, बैंकिंग परीक्षाएं, और कैट, छात्रों के लिए करियर के प्रमुख रास्ते खोलती हैं।
इन परीक्षाओं की लोकप्रियता और महत्व इस बात से भी स्पष्ट होता है कि हर साल लाखों छात्र इन परीक्षाओं में बैठते हैं। उदाहरण के लिए, 2023 में नीट परीक्षा में लगभग 20 लाख छात्रों ने भाग लिया।प्रतियोगी परीक्षाएं छात्रों के लिए अवसर प्रदान करती हैं, लेकिन इसी के साथ ये उनके लिए भारी मानसिक और भावनात्मक तनाव का कारण भी बन जाती हैं। नेशनल काउंसिल ऑफ एजुकेशनल रिसर्च एंड ट्रेनिंग (NCERT) की एक रिपोर्ट के अनुसार, भारत में लगभग 80% छात्र परीक्षा के दौरान तनाव और चिंता महसूस करते हैं।
प्रतियोगी परीक्षाओं के कारण छात्रों पर बढ़ता दबाव
1. अत्यधिक प्रतिस्पर्धा: प्रतियोगी परीक्षाओं में सफलता प्राप्त करने के लिए छात्रों को लाखों अन्य छात्रों से बेहतर प्रदर्शन करना होता है। यह प्रतिस्पर्धा इतनी तीव्र होती है कि कई बार छात्रों को अपनी क्षमता और आत्मविश्वास पर संदेह होने लगता है।
2. अभिभावकों की अपेक्षाएं: कई माता-पिता अपने बच्चों से अत्यधिक उम्मीदें रखते हैं। वे चाहते हैं कि उनका बच्चा केवल टॉप रैंक प्राप्त करे। डॉ. रवींद्रनाथ टैगोर एजुकेशनल इंस्टीट्यूट द्वारा किए गए एक अध्ययन में पाया गया कि ६५% छात्रों पर अपने अभिभावकों की अपेक्षाओं का दबाव होता है।
3. कोचिंग संस्थानों का दबाव: कोचिंग सेंटर, जो छात्रों को प्रतियोगी परीक्षाओं की तैयारी में मदद करते हैं, अक्सर छात्रों पर अतिरिक्त दबाव डालते हैं। कोचिंग कक्षाओं की भारी फीस और समय की मांग छात्रों को शारीरिक और मानसिक रूप से थका देती है।
4. समय प्रबंधन की चुनौती: विद्यालय, कोचिंग, और स्वयं-अध्ययन के बीच संतुलन बनाना छात्रों के लिए एक बड़ी चुनौती है। कई बार छात्र अपने व्यक्तिगत समय को भी त्याग देते हैं, जिससे उनके मानसिक स्वास्थ्य पर नकारात्मक प्रभाव पड़ता है।
5. विफलता का डर: विफलता का डर छात्रों के मानसिक स्वास्थ्य को प्रभावित करता है। भारतीय समाज में परीक्षा में असफलता को अक्सर व्यक्तिगत असफलता के रूप में देखा जाता है, जो छात्रों में आत्म-सम्मान की कमी और चिंता को बढ़ावा देता है।
छात्रों पर दबाव के परिणाम
1. मानसिक स्वास्थ्य पर प्रभाव: अत्यधिक दबाव के कारण छात्रों में डिप्रेशन, एंग्जायटी, और इंसोम्निया जैसी समस्याएं देखने को मिलती हैं। लांसेट साइकेट्री जर्नल के एक अध्ययन के अनुसार, भारत में हर ४ में से १ किशोर मानसिक स्वास्थ्य समस्याओं से जूझ रहा है।
2. शारीरिक स्वास्थ्य पर प्रभाव: लंबे समय तक पढ़ाई के कारण छात्रों की शारीरिक गतिविधियां कम हो जाती हैं, जिससे मोटापा, पीठ दर्द और आंखों से जुड़ी समस्याएं बढ़ जाती हैं।
3. समाज और परिवार के साथ दूरी: छात्र पढ़ाई में इतने व्यस्त हो जाते हैं कि वे अपने परिवार और दोस्तों के साथ समय नहीं बिता पाते। यह सामाजिक संबंधों को कमजोर करता है।
4. आत्महत्या के मामले: परीक्षा के दबाव के कारण आत्महत्या की घटनाएं चिंताजनक स्तर तक बढ़ गई हैं। नेशनल क्राइम रिकॉर्ड्स ब्यूरो (NCRB) के आंकड़ों के अनुसार, २०२१ में लगभग १३,००० छात्रों ने आत्महत्या की, जिनमें से एक बड़ा हिस्सा प्रतियोगी परीक्षाओं की तैयारी कर रहा था।
छात्रों पर दबाव कम करने के समाधान
1. समग्र शिक्षा प्रणाली: शिक्षा को केवल अंक और रैंक पर केंद्रित न रखकर, इसे छात्रों के कौशल, रचनात्मकता और व्यक्तित्व विकास पर केंद्रित करना चाहिए। फिनलैंड की शिक्षा प्रणाली इसका एक उत्कृष्ट उदाहरण है।
2. मनोवैज्ञानिक परामर्श और मार्गदर्शन: विद्यालय और कोचिंग संस्थानों में छात्रों के लिए मानसिक स्वास्थ्य सहायता उपलब्ध कराई जानी चाहिए। नियमित काउंसलिंग से छात्रों को अपने डर और चिंता को कम करने में मदद मिल सकती है।
3. अभिभावकों की भूमिका: माता-पिता को अपने बच्चों पर अनावश्यक दबाव डालने के बजाय, उन्हें प्रेरित करना चाहिए और उनकी मानसिक स्थिति को समझना चाहिए।
4. कोचिंग संस्कृति में सुधार: कोचिंग संस्थानों को छात्रों की मानसिक और शारीरिक भलाई पर ध्यान देना चाहिए। अत्यधिक होमवर्क और परीक्षाओं के बजाय छात्रों के संपूर्ण विकास को प्राथमिकता दी जानी चाहिए।
5. स्वास्थ्यप्रद दिनचर्या: छात्रों को अपनी दिनचर्या में शारीरिक व्यायाम, ध्यान और योग को शामिल करना चाहिए। यह न केवल शारीरिक स्वास्थ्य को बेहतर बनाता है, बल्कि मानसिक शांति भी प्रदान करता है।
6. विफलता को स्वीकार करना: समाज और अभिभावकों को यह समझना चाहिए कि असफलता जीवन का हिस्सा है और इससे सीखकर आगे बढ़ा जा सकता है।
शिक्षा और प्रतियोगी परीक्षाओं का महत्व आज के समय में और भी अधिक हो गया है। लेकिन इसके साथ ही यह भी आवश्यक है कि शिक्षा प्रणाली, अभिभावक और समाज छात्रों के मानसिक और शारीरिक स्वास्थ्य पर ध्यान दें। डॉ. एपीजे अब्दुल कलाम ने कहा था, “सपने वह नहीं जो हम सोते हुए देखते हैं, सपने वह हैं जो हमें सोने नहीं देते।” छात्रों को यह समझने की जरूरत है कि जीवन में सफल होने के लिए केवल पढ़ाई ही महत्वपूर्ण नहीं है, बल्कि संतुलित जीवनशैली और सकारात्मक दृष्टिकोण भी उतने ही आवश्यक हैं।

(लेखक शिक्षाविद हैं)
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आदरणीय आपने वर्तमान शैक्षिक परिस्थितियों से जूझते हुए छात्रों/ छात्राओं की मानसिक, शारीरिक और सामाजिक स्थितियों का सटीक और यथार्थ विश्लेषण किया है। वास्तव में यह चिंता का विषय है।
असल में आज ऊँची उड़ान के पीछे युवा और उनके अभिभावक और किसी पहलू पर सोचना ही नहीं चाहते। बच्चों के मन को उसी दिशा में प्रेरित किया जाता है।
पहले ज्ञान – विज्ञान के साथ व्यावहारिकता को भी महत्व दिया जाता था। आज केंद्रबिंदु में लाखों – करोड़ों का पैकेज मात्र है।
आपको साधुवाद!
अरविंद अवस्थी
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