मिथिलेश कुमार पाण्डेय ( लेखक पूर्व सहायक महाप्रबंधक, बैंक ऑफ बड़ौदा एवं आर्थिक विश्लेषक हैं )
आर्थिक राष्ट्रवाद (Economic Nationalism) कोई नयी परिकल्पना नहीं है l यह तो मानव स्वाभाव का अविभाज्य हिस्सा है l पुरातन काल से ही मनुष्य इस विचारधारा के अनुसार कालोचित व्यवहार करता रहा है और आर्थिक सुरक्षा के लिए प्रयासरत रहा है l वर्तमान कालखंड में जबकि व्यापार के लिए देशों की भौगौलिक सीमाएं गौण हो रही हैं और व्यापार का वैश्वीकरण हो गया है तब आर्थिक राष्ट्रवाद की विचारधारा बहुत महत्वपूर्ण हो गयी है l विश्व की सबसे बड़ी आर्थिक शक्ति की सत्ता के शिखर पर डोनाल्ड ट्रम्प की वापसी के उपरांत Economic Nationalism का उग्र स्वरूप विश्व पटल पर चर्चा का विषय बना हुआ है l
डोनाल्ड ट्रम्प का MAGA अभियान सम्पूर्ण विश्व के अर्थजगत में एक अद्भुद कौतुहल और हलचल बना रखा है और छोटे बड़े सभी देशों में Economic Nationalism के विचार गंभीरता से सोचे समझे और क्रियान्वित किये जा रहे हैं l आइये हमलोग भी इस चिरस्थायी विचारधारा को वर्तमान माहौल में देखने और समझने का प्रयास करते हैं l 21 वीं सदी में, खासकरके COVID महामारी, रूस उक्रेन युद्ध, अमेरिका चीन व्यापार युद्ध, विश्व के किसी भी हिस्से में सामरिक अशांति, भूराजनीतिक तनाव, सप्लाई चेन संकट जैसे वैश्विक घटनाओं के कारण आर्थिक राष्ट्रवाद का स्वरुप और भी कुछ ज्यादा सशक्त हुआ है l
स्वदेश प्रेम मानव स्वभाव का एक अभिन्न और अक्षुण अंग है l विश्व के किसी भी कोने में स्थित व्यक्ति चाहे वह अमीर हो या गरीब, शिक्षित हो या अशिक्षित, बुढा हो या जवान अपने देश से जरुर प्रेम करता है और देश की भलाई के लिए प्राणोत्सर्ग के लिए भी तत्पर रहता है l अपने देश की समृद्धि और संप्रभुता की सुरक्षा के लिए सर्वश्व समर्पण करने की भावना संसार के सारे समझदार व्यक्तिओं में भरा होता है और यही कारण है कि विश्व के हर छोटे से छोटे देश निश्चिन्त भाव से अपने संसाधनों के सहारे अपनी अपनी तरक्की के प्रयास में लगे हैं और अपने देश के नागरिकों को सुखद और समृद्ध भविष्य सुलभ कराने के लिए प्रयासरत हैं l

अपने देश की सुरक्षा, संप्रभुता, सम्पन्नता आदि के लिए अपने उपलबद्ध संसाधनो के सहारे पूर्ण प्रयास करना राष्ट्रवाद है l देश के शासक और नीतिनियंता काल और परिश्थिति के अनुसार यथोचित निर्णय लेकर क्रियान्वित करते हैं और प्रत्येक नागरिक अपने अपने नागरिक धर्म का निर्वहन करते हुए अपने अपना कर्तव्य पूरा करते हैं l
किसी भी व्यक्ति, परिवार, समाज, देश आदि के सफल संचालन के लिए अर्थ की आवश्यकता अपरिहार्य है l अपने देश की भौगौलिक सीमाओं की रक्षा, देश की आन बान और शान की लिए सर्वश्व न्योछावर करने की भावना राष्ट्रवाद का सर्वाधिक प्रचलित परिकल्पना है l परन्तु यह राष्ट्रवाद की संपूर्णता नहीं है l देश के समस्त नागरिकों को सुरक्षा, स्वास्थ्य, शिक्षा, समृद्धि सुलभ कराना भी राष्ट्रवाद ही है जिसे हम आर्थिक राष्ट्रवाद कहते हैं l

Economic Nationalism एक ऐसी विचारधारा है जो की किसी राष्ट्र की घरेलु अर्थव्यवस्था, उद्योगों और श्रमिकों को प्राथमिकता देने की पक्षधर होती है l यह एक ऐसी सोच है जिसके तहत घरेलु अर्थव्यवस्था, उद्द्योगों और श्रमिकों को विदेशी प्रतिस्पर्धा और वैश्वीकरण के नकारात्मक प्रभावों से संरक्षित करने का प्रयास किया जाता है l इस विचारधारा के मूल में देश की आत्मनिर्भरता को प्रोत्साहित करना, घरेलु उत्पादन को प्राथमिकता देना, आन्तरिक रोजगार सृजन को बढ़ावा देना तथा विदेशी पूंजी और वस्तुओं पर निर्भरता को कम करना होता है l
अपने देश भारत की स्वतंत्रता के बाद से ऐतिहांशिक बात करें तो आर्थिक राष्टवाद (Economic Nationalism) के विभिन्न स्वरुप देखने को मिलते हैं l पंडित नेहरू के नेतृत्व में उनकी समाजवादी सोच के साथ मिश्रित अर्थव्यवस्था अपनाई गयी जिसमे भरी उद्द्योगों को सरकारी सरक्षण दिया गया l सार्वजनिक क्षेत्र, ग्रामीण विकास और आवश्यक वस्तुओं की आत्मनिर्भरता को प्राथमिकता दी गयी l BHEL, SAIL, ONGC, HAL जैसे उपक्रम स्थापित हुए l
विदेशी वस्तुओं के आयात को कम करके स्वदेशी उत्पादन पर जोर दिया गया l विदेशी कम्पनिओं पर MRTP एक्ट ( एकाधिकार और प्रतिबंधात्मक व्यापार व्यव्हार अधिनियम ) FERA एक्ट ( विदेशी मुद्रा विनियमन अधिनियम ) के तहत कड़े नियंत्रण लगाये गए l 1965 -1980 का काल खंड हरितक्रांति और खाद्य आत्मनिर्भरता के लिए समर्पित माना जायेगा l
खाद्यान के लिए भारत PL-480 कार्यक्रम के अंतर्गत अमेरिका पर निर्भर था l हरित क्रांति के माध्यम से भारत गेहूं और धान में आत्मनिर्भरता प्राप्त की l यह राष्ट्रवाद का स्पष्ट उदहारण था l 1991 में आर्थिक उदारीकरण शुरू हुआ और भारत ने वैश्विकरण और मुक्त व्यापार को अपनाया l इसके उपरांत Economic Nationalism की दिशा बदल गयी l रक्षा, अन्तरिक्ष, परमाणु उर्जा जैसे रणनीतिक क्षेत्रों में विदेशी निवेश आज भी सिमित है l छोटे और मंझोले उद्द्योगों को संरक्षित किया गया है l 2014 के बाद आर्थिक राष्ट्रवाद का पुनर्जागरण का दौर माना जा सकता है l
प्रधान मंत्री नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व में मेक इन इंडिया, आत्मनिर्भर भारत, PLI योजना, रक्षा क्षेत्र में आत्मनिर्भरता, डिफेन्स एक्सपोर्ट, डिजिटल राष्ट्रवाद को मजबूती से आगे बढाया गया l वैश्विक स्तर पर ट्रम्प के पहले कार्यकाल के दौरान 2017 में शुरू की गयी ‘अमेरिका फर्स्ट’ नीति और दुसरे कार्यकाल में MAGA ( Make America Great Again) आर्थिक राष्ट्रवाद को मजबूती से प्रस्तुत करने का ज्वलंत उदहारण है l
आत्मनिर्भरता की वकालत, विदेशी वस्तुओं पर टैरिफ और शुल्क में वृद्धि, घरेलु उद्योगों और कृषि को सब्सिडी और संरक्षण, रणनीतिक क्षेत्रों पर स्वदेशी नियंत्रण, वोकल फॉर लोकल जैसे अभियानों का समर्थन, सरकारी

खरीद में स्वदेशी उत्पादों को प्राथमिकता आदि आर्थिक राष्ट्रवाद की प्रमुख विशेषताएं हैं l इससे घरेलु उद्द्योगों की रक्षा होती है, रोजगार के अवसर बढ़ते हैं, विदेशी प्रभुत्यों से सुरक्षा मिलती है तथा राष्ट्रीय सुरक्षा को बल मिलता है l लेकिन विदेशी वस्तुएं महँगी हो जाती हैं, उपभोक्तायों के विकल्प सिमित हो जाते हैं, अन्तेर्राष्ट्रीय सम्बन्ध कमजोर होते हैं और विदेशी निवेश घट सकता है l
दुनिया का कोई भी देश पुर्णतः आत्मनिर्भर नहीं हो सकता है क्योकि सर्व साधन सम्पन्नता दुर्लभ है l संसाधन असमान रूप से बाते हुए हैं l कहीं प्राकृतिक खनिज सम्पदा है तो तकनीक नहीं, कही तकनीक है तो खनिज नहीं, कही श्रम शक्ति है तो कम नहीं, कही काम है तो श्रम शक्ति नहीं, कही उत्पादन है तो बाज़ार नहीं l
सम्पूर्ण आर्थिक गतिविधि को पूरा करने के लिए आज प्रत्येक देश को किसी न किसी रूप में अन्य देशों की जरुरत है ही l जबतक देशो की आवश्यकता एक दुसरे की पूरक होती हैं तबतक कोई समस्या नहीं होती है और सभी सम्बद्ध देशों का Economic Nationalism एक साथ मजबूत होते हैं परन्तु जब हितों में टकराहट होती है तब देशों को राष्ट्रवाद का पुनर्मूल्यांकन करना पड़ता है और मध्य मार्ग अपनाना जरुरी जान पड़ता है l हालाँकि मध्य मार्ग अपनाना बहुत आसान नहीं होता है l
उदहारण के तौर पर भारत और अमेरिका के बीच व्यापारिक तनाव का मुख्य कारण कृषि और डेरी उत्पादों को लेकर है l अमेरिका भारत के कृषि और डेरी उत्पादों के बाज़ार में अपनी उपश्थिति चाहता है जबकि भारत ऐसा नहीं कर सकता क्योंकि यहाँ के छोटे किसानो पर इसका व्यापक प्रतिकूल असर पड़ेगा l इसी तरह अमेरिका का उक्रेनी खनिज सम्पदा पर एकाधिकार उक्रेन के हितों के सर्वथा विरुद्ध है l जटिल और दृढ Economic Nationalism शीत युद्ध से लेकर सामरिक टकराव तक का कारण बनता है l
सूचना और संचार के वर्तमान युग में पूरी दुनिया वास्तव में एक वैश्विक गाँव में बदल गयी है l विश्व के किसी भी कोने का हर आदमी एक वेहतर जिन्दगी जीना चाहता है और वह उसका अधिकारी भी है l व्यापार का वैश्वीकरण अपरिहार्य है l इससे व्यापार को नया बाज़ार मिलता है और सफलता को नए पंख लग जाते हैं l वैश्विक उत्पान को बल मिलता है और सामान्यतः कम कीमत पर वेहतर उत्पाद लोगों को उपलब्द्ध होता है l

आंकड़ो के माध्यम से वैश्वीकरण के प्रभाव को देखा जाय तो काफी सकारात्मक संकेत मिलते हैं l IMF के डाटा के अनुसार विश्व के GDP में 1980 से 2023 के दौरान 9 गुना वृद्धि हुई है l 1980 में विश्व की GDP 11,00,000 करोड़ डॉलर थी जोकि 2023 में बढ़कर 104 लाख करोड़ डॉलर हो गयी l विश्व बैंक के डाटा के अनुसार 1970 में वैश्विक व्यापार GDP का 27% था जो कि 2023 में 59% हो गया l 1980 में चीन का GDP 19,100 करोड़ डॉलर था जो कि 2023 में 17 लाख करोड़ डॉलर हो गया l विश्व बैंक के अनुसार 1981 में दुनिया के 42% लोग अत्यंत गरीबी में थे जबकि 2022 में केवल 9% लोग अत्यंत गरीबी में थे l
विश्व स्वास्थ्य संगठन के अनुसार 1952 में जीवन प्रत्याशा 52 वर्ष थी जो कि 2023 में 73 वर्ष है, शिशु मृत्यु दर 1990 में 64 प्रति हज़ार थी जो कि 2021 में 28 प्रति एक हज़ार थी l सन 2000 में केवल 10% आबादी इन्टरनेट का उपयोग करती थी जबकि 2023 में 66% आबादी इन्टरनेट का प्रयोग कराती थी l उदारीकरण के बाद भारत के भी आर्थिक सूचकांक में काफी सराहनीय सुधार हुआ है l
इस तरह हम देखते हैं कि वैश्वीकरण के आर्थिक लाभ सराहनीय हैं और अब इसे छोड़ा नहीं जा सकता है l आर्थिक राष्ट्रवाद (Economic Nationalism) को वैश्वीकरण के रश्ते में अवरोध बनाने से बचना होगा और विश्व की आबादी के समग्र उत्थान के लिए आर्थिक राष्ट्रवाद को थोडा लचीला बनाकर समावेशी रुख के साथ आगे बढ़ना श्रेयष्कर होगा l टैरिफ वार या ट्रेड वार से बचते हुए परस्पर समझौतावादी सोच के साथ बातचीत करके व्यापार समझौता समय की मांग है l
व्यापारिक टकराहट को छोड़कर व्यापारिक संबंधो (Economic Nationalism) के ऐतिहासिक स्वरुप के अलोक में भविष्य की नीति बनानी होगी l व्यापार समझौते के दौरान मानवीय मूल्यों को व्यापारिक नैतिकता के साथ साथ समग्र व्यापारिक परिणाम के अलोक में स्थान देना होगा l बड़े और समृद्ध देशों को थोड़ी उदारता दिखानी होगी क्योकि गरीब और विकासशील देशो की जरूरतें और आन्तरिक सामाजिक और राजनितिक Ecosystem थोड़ी जटिल होती हैं जिसे बड़े देशों की उदारता से कुछ आसानी से सुलझाया जा सकता है l