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Dev Deepawali: काशी में ही क्यों मनाते हैं देव दीपावली, त्रिपुरासुर वध से अहिल्याबाई से जुड़ी पौराणिक कथा

 

वाराणसी I कार्तिक पूर्णिमा के पावन अवसर पर बुधवार को काशी देव दीपावली के भव्य उत्सव में डूब गई है। गंगा के घाटों पर लाखों दीपकों की रोशनी से आकाश और धरती एकाकार हो जाते हैं, मानो स्वर्ग धरा पर उतर आया हो। लेकिन सवाल उठता है कि देव दीपावली केवल काशी में ही क्यों मनाई जाती है और यह देवताओं के दीपों का द्वार कैसे बनी? इसकी जड़ें पौराणिक मान्यताओं और ऐतिहासिक घटनाओं में गहरे समाई हैं।

पौराणिक कथाओं के अनुसार, देव दीपावली की कहानी त्रिपुरासुर के संहार से जुड़ी हुई है। तरकाक्ष, कमलाक्ष और विद्युन्माली – ये तीन असुर ब्रह्मा जी के कठोर तप और आशीर्वाद से इतने शक्तिशाली हो गए थे कि उन्होंने तीनों लोकों पर अपना आधिपत्य जमा लिया। उनके अत्याचारों से त्रस्त देवी-देवताओं ने भगवान शिव की शरण ली। कार्तिक पूर्णिमा के दिन भगवान शिव ने अपने त्रिशूल से त्रिपुरासुर का वध किया और देवताओं को मुक्ति दिलाई। कृतज्ञता स्वरूप देवताओं ने काशी में उतरकर दीप जलाए और उत्सव मनाया। तभी से मान्यता है कि इस दिन देवता काशी के घाटों पर अवतरित होते हैं और दीप प्रज्वलित करने वालों को आशीर्वाद प्रदान करते हैं। काशी को मोक्षदायिनी नगरी माना जाता है, इसलिए देवताओं का यह उत्सव यहीं परंपरागत रूप से मनाया जाता है।

वहीं, घाटों पर दीपों की यह भव्य परंपरा पंचगंगा घाट से जुड़ी है। वर्ष 1785 में काशी विश्वनाथ मंदिर का जीर्णोद्धार कराने वाली ग्वालियर की महारानी अहिल्याबाई होलकर ने यहां दीप जलाकर देव दीपावली उत्सव की औपचारिक शुरुआत की। इस उत्सव को भव्यता प्रदान करने में काशी नरेश महाराज विभूति नारायण सिंह का महत्वपूर्ण योगदान रहा। उनकी प्रेरणा से घाटों पर दीपदान की परंपरा ने नया रूप लिया, जो आज विश्व प्रसिद्ध है।

हर वर्ष लाखों श्रद्धालु गंगा स्नान कर दीपदान करते हैं और मानते हैं कि इससे पितरों को मुक्ति मिलती है तथा देवताओं का आशीर्वाद प्राप्त होता है। इस बार भी काशी के 84 घाटों पर दीपों की जगमगाहट देखते ही बनती है, जो धार्मिक आस्था और सांस्कृतिक धरोहर का अनुपम संगम है।