नई दिल्ली। यदि भारत और चीन घरेलू स्तर पर इलेक्ट्रिक वाहनों की आपूर्ति पूरी तरह से सुनिश्चित कर लेते हैं, तो सल्फर डाइऑक्साइड (SO2) का उत्सर्जन राष्ट्रीय स्तर पर मौजूदा स्तरों से 20 फीसदी तक बढ़ सकता है। यह खुलासा प्रिंसटन विश्वविद्यालय के शोधकर्ताओं के नेतृत्व में किए गए एक अध्ययन में हुआ है।
शोधकर्ताओं का दावा
शोध के मुताबिक, SO2 उत्सर्जन में वृद्धि मुख्य रूप से निकल और कोबाल्ट जैसे खनिजों के शोधन और बैटरी निर्माण से होगी। ये खनिज इलेक्ट्रिक वाहनों की बैटरियों के लिए बेहद जरूरी हैं। हालांकि, इलेक्ट्रिक वाहनों को स्वच्छ ऊर्जा का माध्यम माना जाता है, लेकिन इनका प्रभाव केवल वाहन उत्सर्जन या बिजली उत्पादन तक सीमित नहीं है।
शोधकर्ताओं ने चेतावनी दी है कि यदि बैटरी निर्माण के लिए खनिजों के शोधन और निर्माण केंद्रों के आसपास आवश्यक पर्यावरणीय उपाय नहीं किए गए, तो ये स्थान प्रदूषण हॉटस्पॉट बन सकते हैं।
बेहतर तकनीक अपनाना जरूरी
शोधकर्ताओं का मानना है कि स्वच्छ ऊर्जा तकनीक अपनाने के साथ-साथ प्रदूषण नियंत्रण उपायों पर भी ध्यान दिया जाना चाहिए। कार्बन उत्सर्जन में कटौती के लिए नई तकनीकों को तेजी से लागू करने की आवश्यकता है, ताकि पर्यावरण को कम से कम नुकसान पहुंचे और समाज को अधिक लाभ मिल सके।
वैकल्पिक बैटरी तकनीक पर जोर
शोधकर्ताओं ने सुझाव दिया है कि बैटरियों के निर्माण में वैकल्पिक रसायनों का विकास किया जाना चाहिए। इससे खनिज-आधारित शोधन प्रक्रिया में होने वाले SO2 उत्सर्जन को कम किया जा सकता है।
भारत के लिए अवसर और चुनौतियां
भारत के पास इलेक्ट्रिक वाहनों के उपयोग और निर्माण को पर्यावरण के अनुकूल बनाने के बेहतरीन अवसर हैं। चूंकि भारत में इलेक्ट्रिक वाहनों का उपयोग अभी चीन के मुकाबले कम है, इसलिए प्रदूषण नियंत्रण उपायों को पहले से लागू करके भविष्य में संभावित समस्याओं को टाला जा सकता है।
विशेषज्ञों का मानना है कि भारत को थर्मल पावर प्लांट्स में सख्त SO2 नियंत्रण उपायों को लागू करना चाहिए। इसके लिए फ्लू-गैस डिसल्फराइजेशन जैसी तकनीकों का उपयोग किया जा सकता है।
इलेक्ट्रिक वाहनों को अपनाने की दिशा में भारत और चीन को न केवल पर्यावरणीय प्रभावों को ध्यान में रखना होगा, बल्कि प्रदूषण नियंत्रण के लिए कड़े उपाय भी करने होंगे। वैकल्पिक बैटरी तकनीकों पर शोध और उन्हें अपनाने से इस चुनौती का समाधान निकाला जा सकता है।