काशी में संतान प्राप्ति के लिए महिलाएं रखती हैं 16 दिन का व्रत, जानिए काशी के ऐतिहासिक सोरहिया मेले का इतिहास

Sorahiya Mela Varanasi : महादेव की नगरी काशी को सात वार, नौ त्योहारों का शहर कहा जाता है, क्योंकि यहां सप्ताह में दिन तो सात होते हैं पर उनमें नौ त्योहार पड़ते हैं। देश की सांस्कृतिक राजधानी काशी को मंदिरों का शहर कहा जाता है, यहां आपको हर गली नुक्कड़ चौराहे पर कोई न कोई मंदिर जरुर दिखाई दोगा, इसके साथ ही यह शहर कई अनोखे मेले और परंपराओं के लिए भी प्रसिद्ध है। इन्हीं में से एक है सोरहिया का मेला (Sorahiya Mela Varanasi), जो लक्खा मेले में शुमार है।

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यह मेला शहर के बीचो-बीच स्थित लक्सा के लक्ष्मीकुंड पर लगता है। लक्ष्मीकुंड पर स्थित महालक्ष्मी मंदिर में 16 दिनों तक पूजा पाठ के लिए भीड़ उमड़ती है। आज हम आपको इस आर्टिकल के माध्यम से बताएंगे कि इस मेले का नाम सोरहिया क्यों पड़ा, इसकी शुरूआत कैसे हुई और यहां 16 दिनों तक देवी की आराधना के पीछे का धार्मिक कारण व महत्व क्या है।

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जाने क्यों इसका नाम पड़ा सोरहिया मेला

मंदिर के उप महंत अवशेष पाण्डेय ने बताया कि यह मेला भादो की शुक्ल पक्ष की अष्टमी से शुरू होकर आश्विन मास की कृष्ण पक्ष की अष्टमी तक चलता है। इस वर्ष यह मेला 31 अगस्त से शुरू हुआ है जिसका समापन 14 सितंबर को जिउतपुत्रिका व्रत के साथ होता है।

उन्होंने आगे बता कि वाराणसी का सोरहिया मेला बहुत ही खास है, इसमें महिलाएं सोलह दिन तक संतान, सुख और समृद्धि के लिए मां लक्ष्मी की पूजा करती है। 16 दिन चलने के कारण इस मेले का नाम सोरहिया मेला पड़ा है। लक्ष्मी कुंड में मौजूद महालक्ष्मी का दर्शन इन दिनों फलदायक होता है। मेले के पहले दिन लोग महालक्ष्मी की प्रतिमा खरीद कर घर ले जाते हैं। उस प्रतिमा की 16 दिनों तक कमल के फूल से पूजा होती है।

मंदिर की भव्य सजावट होती है

सोरहिया मेले के दौरान वाराणसी के लक्सा स्थित महालक्ष्मी मंदिर की सजावट देखते ही बनती है। इस दौरान महालक्ष्मी मंदिर की भव्य सजावट की जाती है। संकरी गलियों के बीचों-बीच स्थित इस मंदिर में आस्था-विश्वास और परंपरा का अद्भुत संगम देखते को मिलता है। भोर में ही मां लक्ष्मीयू का पंचामृत से स्ननान कराया जाता है उसके बाद लक्ष्मी जी की विधिवत आरती की जाती है। आरती के बाद भक्तों को दर्शन के लिए गर्भगृह खोल दिया जाता है।

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एक साथ तीन देवियों के दर्शन का मिलता है सौभाग्य

इस मंदिर में एक साथ तीन देवियां विराजमान है, मां लक्ष्मी, मां सरस्वती और मां काली। इस मंदिर में एक साथ तीन शक्तियों का एकसाथ दर्शन करने का सौभाग्य प्राप्त होता है। इन 16 दिनों तीनों देवियों की विशेष रुप से आराधना की जाती है। सोलह दिनों के मेले के दौरान भक्त महालक्ष्मी मंदिर में आकर पूजा करते हैं। इसके मुखौटा खरीद कर उसे डलिया में रखते हैं और दिन में पूजा का संकल्प कर घर वापस आकर पूजा करते हैं।

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मेले से जुड़ी पौराणिक कथा

पौराणिक कथा के अनुसार, प्राचीन काल में राजा जिउत संतानहीन थे। उन्होंने मां लक्ष्मी की साधना की। उनकी भक्ति से प्रसन्न होकर मां ने उन्हें सपने में दर्शन दिए और सोलह दिनों का कठिन व्रत करने का आदेश दिया। राजा ने व्रत पूरा किया और उन्हें न सिर्फ संतान की प्राप्ति हुई, बल्कि जीवन में समृद्धि और ऐश्वर्य भी मिला। तभी से यह परंपरा सोरहिया मेला के रूप में हर साल निभाई जाती है।

मान्यता है कि सोरहिया में मां लक्ष्मी की पूजा से घर में सुख, शांति, आरोग्य, ऐश्वर्य और लक्ष्मी निवास करती है। मेला शुरू होते ही लक्ष्मीकुंड में आराधना शुरू हो जाती है। लक्ष्मी का मंदिर परिसर श्रीसूक्त, स्वर्णाकर्षण के मंत्रों से गूंज उठता है। भक्तगण मां लक्ष्मी की खास प्रतिमा और कपड़े खरीदते हैं।

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घर-घर होती है पूजा

भक्त मंदिर से देवी का मुखौटा खरीदकर उसे डलिया में सजाते हैं और घर ले जाकर 16 दिनों तक पूजा करते हैं। पहले दिन महिलाएं 16 गांठ वाला धागा पूजकर हाथ में बांध लेती हैं और पूरे व्रत के दौरान देवी की आराधना करती हैं।

जिउतपुत्रिका के दिन होता है मेले का समापन

मेले के पहले दिन सोलह गांठ के धागा की पूजा कर बांह में बांधने के बाद सोलह दिन व्रत स्त्रियां शुरू करती है। डलिया में सजी मां लक्ष्मी का मुखौटा घर ले जाकर पूजते हैं। आखिरी दिन जीवित्पुत्रिका व्रत के लिए महिलाओं दर्शन के लिए आती है। व्रत रखने वाली स्त्रियां पहले ही दिन से मां लक्ष्मी की मूर्ति में धागा लपेट कर पूरे सोलह दिन पूजा करती है और अंतिम 16 वें दिन जिउतपुत्रिका के दिन व्रत का समापन करती है।

इस पूजा में 16 अंक का विशेष महत्व है

महालक्ष्मी के पूजन और व्रत में 16 अंक का विशेष महत्व रखता है, क्योंकि सोलह दिन चलने के कारण इसका नाम सोरहिया का मेला पड़ा और 16 दिन के व्रत-पूजन में स्नान और 16 आचमन के बाद देवी विग्रह की 16 परिक्रमा की जाती है। इसके अलावा देवी को 16 चावल के दाने, 16 दूर्वा और 16 पल्लव अर्पित किए जाते हैं। व्रत के लिए 16 गांठ का धागा धारण किया जाता है। कथा

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सुनाई जाती है जिसमें 16 शब्द होते हैं। 16वें दिन जीवित पुत्रिका या ज्यूतिया के निर्जला व्रत के साथ पूजन का समापन हो जाता है।

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