कवि : Mr. G P Singh, IRS

जो धीरे-धीरे
लुप्त हो जाता है,
वो अचानक
कभी नहीं जाता।
वो साँझ की तरह
दृष्टि से फिसलता है,
और फिर स्मृति से
चुपचाप चला जाता है।
पहले बोली
धीमी हो जाती है,
फिर राग
अपने आप शांत होते हैं।
छत पर बांसुरी
अब नहीं बजती,
दीया अब
हवा से डर जाता है
माँ की उंगलियाँ
जो सिखाती थीं,
अब वही ज्ञान
एप्स में मिल जाता है।
जो रोटियों में
गूँथा गया था,
अब पैकेट में
सूखा मिलता है
नज़र का नमस्कार
अब इमोजी बन गया है,
संस्कार अब
बस स्क्रीन पर चमकते हैं।
दादी की कहानी
अब मौन हो गई है,
हर बच्चा
अब मोबाइल में खो गया है।
जो धीरे-धीरे
लुप्त हो जाता है,
वो कोई चीज़ नहीं—
एक युग होता है।
जो गंध में था,
जो रंग में बसा था,
जो मिट्टी की
छाँव में रहता था।
ना कोई
उसे बचा सका,
वो भाप की तरह
बिना आवाज़ उड़ गया।
ना शोक हुआ,
ना उत्सव बचा,
बस एक खालीपन
जिसका अब कोई नाम नहीं।