शीर्षक: विदुर–धृतराष्ट्र संवाद (इंडिगो और घरेलू उड़ान)
"जेब को खाली करता उम्मीदों का उड़ान इंडिगो"
आलेख -अमित श्रीवास्तव
धृतराष्ट्र: विदुर, यह कौन-सी उड़ान नगरी है जहाँ यात्री गेट पर खड़े-खड़े बूढ़े हो जाते हैं, पर विमान आसमान तक पहुँचते-पहुँचते जवान हो जाता है? कभी उड़ान देर से, कभी स्टाफ नाराज़, कभी यात्रियों का हंगामा… आख़िर यह हलचल किस कारण है?
विदुर: महाराज, यह आधुनिक आकाश-लोक है, जहाँ एक ही संस्था पूरे देश की आकाश-यात्राओं पर कब्ज़ा-सा जमाए बैठी है। कहते हैं कि घरेलू उड़ानों का लगभग साठ फ़ीसदी संचालन वही करती है— एक तरह की ‘हवाई एकाधिकार’ जैसी स्थिति।
धृतराष्ट्र: पर इतना नियंत्रण किस लाभ से? क्या जनता को सुविधा दी गई, किराए घटे?
विदुर, (व्यंग्य में): सुविधा? किराए? महाराज, यहाँ कहानी उलटी है। जहाँ औरों के लिए “सेवा” शब्द है, वहाँ इनके लिए “मुनाफा” मुख्य धर्म है।
कहते हैं— “यदि हर उड़ान में दस मिनट बचा लें, तो साल में दो सौ अतिरिक्त उड़ानें करवाकर कमाई बढ़ाई जा सकती है।” और वह अतिरिक्त कमाई? वह तो आसमान में ही रह जाती है महाराज, धरती पर बैठे ग्राहक तक उसका एक क़तरा भी नहीं गिरता।
धृतराष्ट्र: तो यात्रियों को क्या मिलता है? बेहतर सेवा? तेज़ चेक-इन? उचित किराया?
विदुर: नहीं महाराज— यात्रियों को मिलता है धैर्य का टेस्ट, स्टाफ की नाराज़गी के दृश्य, और कभी-कभी सीट पर वह बुरा-सा अनुभव जिसे लोग घर जाकर “सोशल मीडिया” की अदालत में बयान करते हैं।
किराया चाहे जितना बढ़ा दो, सेवा चाहे जितनी घटा दो, पर मुनाफा बढ़ता ही रहे— यही इस आकाश-मंडल का स्वर्ण-सूत्र है।
धृतराष्ट्र: और जब समस्या उठती है—जैसे हाल में उठी— तब वे क्या कहते हैं?
विदुर: महाराज, तब तो उनका उत्तर और भी दिव्य होता है— “यह तो ऑपरेशनल चुनौती है… ये तो तकनीक की बात है… हम सुधार रहे हैं…”
यानि विमान चाहे धरती पर अटका रहे, यात्री चाहे गेट पर परेशान खड़े रहें, जिम्मेदारी अप्सरा बनकर हवा हो जाती है।
धृतराष्ट्र (कटाक्ष में): यह तो वही हुआ कि लाभ आसमान में उड़ गया और घाटा यात्रियों के सिर पर उतार दिया गया।
विदुर: हाँ महाराज! यहाँ टिकट महँगा, सेवा पतली, फिर भी प्रतिस्पर्धा न के बराबर। जैसे किसी ने बता दिया हो कि— “एकाधिकार में गड़बड़ नहीं, अवसर है।”
यात्री कहते हैं— “हम उड़ान नहीं, किस्मत बुक कर रहे हैं। उड़े तो ठीक, नहीं तो देरी का नया अध्याय।”
धृतराष्ट्र: तो निष्कर्ष क्या है इस आकाश-व्यंग्य का?
विदुर: निष्कर्ष यह कि— धरती पर जनता लाइन में खड़ी होती है, और आसमान में मुनाफ़ा। साठ फ़ीसदी बाज़ार पर कब्ज़ा हो या हर उड़ान से दस मिनट निचोड़कर साल की कमाई बढ़ाना— सबका भार जनता की जेब पर, और फल किसी और की तिजोरी में।
अंत में महाराज— उड़ान इंसान का सपना होती है, पर यहाँ उड़ान सिर्फ़ कमाई का साधन बन गई है, जहाँ ग्राहक आकाश नहीं छूता, बस लूट का स्पर्श ही पाता है।
