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क्या यही नया बांग्लादेश है? भीड़ की हिंसा और अंतरात्मा की चुप्पी, दीपू चंद्र की हत्या पर सवालों के कटघरे में इंसानियत

 
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Bangladesh Mob Lynching: बांग्लादेश के मैमनसिंह में हिंदू युवक दीपू चंद्र दास की भीड़ द्वारा की गई नृशंस हत्या केवल एक आपराधिक घटना नहीं, बल्कि पूरे समाज और शासन-तंत्र के लिए गंभीर चेतावनी है। जिस व्यक्ति पर कथित ईशनिंदा का आरोप लगाया गया, जांच में उसके खिलाफ कोई प्रत्यक्ष या डिजिटल सबूत नहीं मिला। इसके बावजूद उसे भीड़ ने पीट-पीटकर मार डाला, शव को लटकाया और आग के हवाले कर दिया। यह दृश्य मध्ययुगीन बर्बरता की याद दिलाता है, न कि किसी आधुनिक लोकतांत्रिक राष्ट्र की।

रैपिड एक्शन बटालियन (RAB) के अधिकारियों का स्पष्ट कहना है कि न तो सोशल मीडिया पर, न ही कार्यस्थल या स्थानीय स्तर पर, ऐसी कोई बात सामने आई जिससे यह साबित हो कि मृतक ने धार्मिक भावनाओं को ठेस पहुंचाई हो। सवाल यह है कि जब आरोप ही निराधार थे, तो कानून ने भीड़ को सजा देने का अधिकार किसने दिया?

यह घटना उस भयावह प्रवृत्ति को उजागर करती है, जहां अफवाहें और कट्टरता कानून से ऊपर बैठ जाती हैं। बांग्लादेश में अल्पसंख्यक हिंदुओं के खिलाफ बढ़ती हिंसा अब छिटपुट घटनाएं नहीं रहीं, बल्कि एक चिंताजनक पैटर्न बनती जा रही हैं। इसके बावजूद अंतरराष्ट्रीय मानवाधिकार संगठनों और वैश्विक समुदाय की चुप्पी और भी खतरनाक है।

भारत सहित दुनिया भर में इस हत्या को लेकर आक्रोश है। ऑल इंडिया इमाम ऑर्गनाइजेशन के प्रमुख इमाम डॉ. इमाम उमर अहमद इलियासी ने इस घटना को “इंसानियत का कत्ल” बताया और सवाल उठाया कि क्या इस्लाम ऐसी हिंसा की अनुमति देता है? उन्होंने मानवाधिकार संगठनों और संयुक्त राष्ट्र से बांग्लादेश में तत्काल हस्तक्षेप की मांग की।

अब तक इस मामले में 12 गिरफ्तारियां हुई हैं, लेकिन गिरफ्तारी तब तक अधूरी है जब तक न्याय, जवाबदेही और भविष्य में ऐसी घटनाओं को रोकने की ठोस गारंटी न मिले। भीड़ की हिंसा सिर्फ एक व्यक्ति की जान नहीं लेती, वह पूरे समाज के नैतिक आधार को कमजोर करती है।

आज सवाल केवल दीपू चंद्र दास की हत्या का नहीं है, सवाल यह है कि क्या हम अफवाह, नफरत और भीड़तंत्र को कानून से ऊपर बैठने देंगे? अगर जवाब “नहीं” है, तो बांग्लादेश ही नहीं, पूरी दुनिया को अब चुप्पी तोड़नी होगी।